।। श्री गणेशाय नमः ।।
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन॥
( श्रीमद्भागवत गीता अ० ३- २६ )
अर्थ -
परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए।
व्याख्या -
ज्ञानी पुरुषों को चाहिए कि कर्मो में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम पैदा न करें -
अर्थात् स्वरूपस्थ महापुरुष ध्यान रखना चाहिए कि उनके किसी प्रकार के व्यवहार/आचरण से उनके अनुयायी के मन में कर्म के प्रति श्रद्धा भाव में कमी न हो जाय। परमात्मतत्त्व से संयुक्त महापुरुष को भी चाहिए कि स्वयं अच्छी तरह नियत कर्म करें और अपने अनुयायीयों को भी करने के लिए प्रेरित करें।
यही कारण था कि पूज्य महाराज जी के गुरुवर वृद्धावस्था में भी रात के दो बजे उठकर बैठ जायँ, खाँसने लगें। तीन बजे कहे - उठो मिट्टी के पुतलों! सब उठ कर चिन्तन में लग जायँ, तो स्वयं थोड़ा लेट जाएं। कुछ देर बाद फिर उठ कर बैठ जाएॅ और कहें -- ष्तुम लोग सोंचते हो कि महाराज सो रहे हैंय किन्तु मैं सोया नहीं, श्वास में लगा था द्य वृद्धावस्था का शरीर है, बैठने में कष्ट होता है, इसी से मैं पड़ा रहता हूँ, लेकिन तुम्हे तो स्थिर और सीधे बैठ कर चिन्तन में लगना है द्य जब तक तैलधारा के सदृश श्वास की डोरी न लग जाए, क्या न टूटे, अन्य संकट बीच में व्यवधान उत्पन्न न कर सकें, तब तक सतत लगे रहना ही साधक का धर्म है द्य मेरी श्वास तो बांस की तरह स्थिर खड़ी है द्यष् यही कारण है कि अनुयायियों से कराने के लिए वह महापुरुष भली प्रकार कर्म में बरतता है।
इस प्रकार स्वरूपस्थ महापुरुष को भी चाहिए कि स्वयं कर्म करते हुए साधकों को भी आराधना में लगाये रहें द्य साधक भी श्रद्धा पूर्वक आराधना में लगें द्य किन्तु चाहे ज्ञानयोगी हो अथवा समर्पण भाव वाला निष्काम कर्मयोगी हो, साधक में साधना का अहंकार नहीं आना चाहिए।