भारतीय संस्कृति में जीवन में शिक्षा के माध्यम से विकास करने हेतु गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। गुरु के आशिर्वाद, उनके सन्निधि एवं प्रवचन और अनुग्रह प्राप्त करने वाला जीवन कृतार्थता से भर जाता है। क्योंकि गुरु आत्म और परमात्मा दोनो के दर्शन कराता है। गुरू की प्रेरणा से आत्मा चैतन्यमय होती है। भवसागर पार पाने में गुरु नाविक की समान हैं। वे ही हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक हैं। उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा - गुरु पूर्णिमा
गुरू पूर्णिमा को गुरु की पूजा की जाती है। भारतीय मान्यताओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा का अर्थ है वर्षा ऋतु का आरम्भ होना है। इस दिन से चार महीने तक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी।
(1)
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम ।
(2)
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर,
हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
(3)
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते
धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण,
और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।
(3)
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
'गु'कार याने अंधकार, और 'रु'कार याने तेज;
जो
अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है,
वही गुरु कहा जाता है ।
(4)
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं
निष्पाप रास्ते से चलते हैं,
हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध
करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं ।
(5)
रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच)
बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले,
शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये
सब गुरु समान है ।