जगन्नाथ मंदिर - कृष्ण बलराम और बहन सुभद्रा के साथ प्रतिष्ठित - Dwarpal Sikar

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04 जुलाई 2020

जगन्नाथ मंदिर - कृष्ण बलराम और बहन सुभद्रा के साथ प्रतिष्ठित

 जगन्नाथ मंदिर उड़ीसा के पुरी में स्थित

कृष्ण अपने बड़े भ्राता बलराम और छोटी बहन सुभद्रा के साथ प्रतिष्ठित है।

गोल आंखों वाले कृष्ण कालिख जितने काले है,

बलराम श्वेत और सुभद्रा हल्दी जैसे पीले रंग में रंगी हैं।



एक हजार साल पुराने किसी मंदिर के गर्भगृह की कल्पना कीजिए जो लोगों से भरा है। दीयों की राशनी और कपूर की महक से भरपूर इस गर्भगृह में मंच पर रखी लकड़ी की तीन विशाल मूर्तिया आपको देखे जा रही है। यह उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर का नजारा है, जहां कृश्ण अपने बड़े भाई बलराम और छोटी बहन सुभद्रा के साथ प्रतिश्ठापित है। गोल आंखो वाले कृश्ण कालिस जितने काले है, बलराम श्वेत, जबकि सुभद्र हल्दी जैसे पीले रंग की। उनकी प्रतिमाएं थेड़ी अजीब सी दिखती है। उन्हें कुरूप भी कह सकते है।

कहते हैं कि महाभारत युद्ध के छत्तीस साल बाद जारा नामक शिकारी के तीर की वजह से कृश्ण अपना नश्वर शरीर छोड़कर बैकुंठ सिधार गये। बड़ी अनिच्छा से उनके अवशेशों का अंतिम संस्कार किया गया। उनके हृदय को छोड़कर्र अिन ने संपूर्ण शरीर को भस्म कर दिया। हृदय को समुद्र को अर्पित किया गया जो बाद में नीलमाधव नामक सुंदर छवि में बदल गया। वह छवि ओडिशा में एक जनजाति को मिली और उन्होंने बड़े ही सम्मान के साथ एक गुफा में प्रतिश्ठापित कर दिया।



 जब राजा इंद्रद्युम्न को इस बात का पता चला तो उन्होंने भ्श्रागवान के लिए अधिक उपयुक्त मंदिर का निर्माण करने का निश्चय किया। आदिवासियों ने नीलमाधव को लाने का काम इंद्रद्युम्न ने अपने सबसे बुद्धिमान दरबारी विद्यापति को सौपा। विद्यापति जानते थे कि आदिवासी लोग नीलमाधव की कड़ी निगरानी करते थे। इसलिए उन्हें खोजने के लिए उन्होंने एक विस्तृत योजना बनाई और बड़ी होशियारी से उस गुफा का पता लगा लिया जहां नीलमाधव रखे हुए थे। विद्यापति ने उस गुफा के बारे में अपने राजा इंद्रद्युम्न को बता दिया। जल्द ही राजा इंद्रद्यम्न नीलमाधव को ले जाने के लिए गुफा तक पहुंचे। आदिवासियों के प्रमुख विश्ववसु ने राजा से नीलमाधव को वहीं रहने देने की गुहार लगाई। लेकिन राजा नहीं माने और गुफा में बलपूर्वक घुस गए। परन्तु छवि गायब हो गइ।

इंद्रद्युम्न को अपनी गलती का एहसास हो हुआ और उन्होंने नीलमाधव से क्षमा मांगी। फिर करूणामय नीलमाधव राजा के सपने में आए और उन्हें समुद्र के किनारे जाने की सलाह दी। उस सलाह पर अमल करने पर राजा को समुद्र के किनारे लकड़ी का लट्ठा मिला जिस पर विश्णु के निशान थे। उन्होंने उसे तराशने के लिए शाही कारीगरों को सौंप दिया, लेकिन वे उसे तराश नहीं पाए।




एक दिन एक बूढ़ा आदमी राजा के पास आया और उसने बोला कि वह उस लट्ठे को तराशकर भगवान की प्रतिमाओं में बदल सकता है। शर्त केवल यह थी कि वह एक बंद कमरे में ही माम करेगा और काम खात्म होने तक कोई उसके कार्य में व्यवधान नहीं डालेगा। राजा मान गए। बूढ़े आदमी ने खुद को लट्ठे के साथ एक कमरे में बंद कर लिया। कई दिनों तक राजा लकड़ी के काटने और ठोकने की आवाजें सुनते रहे। लेकिन एक किन ये आवाज आनी बंद हो गई। राजा अधीर हो गए और किसी अनहोनी की आशंका में उन्होंने कमरे का दरवाजा खोल दिया।

अंदर बूढ़े आदमी के बजाय देवताओं के कारीगर विश्वकर्मा थे जो तीन अधूरी मूर्तियों को चित्रित कर रहे थे। राजा को देखते ही विश्वकर्मा आझल हो गए और कृश्ण, बलराम  व सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी ही रह गई। अंततः इंद्रद्युम्न ने उन मूर्तियों को उसी रूप में अपने मंदिर में प्रतिश्ठापित कर दिया।




ये अधूरी प्रतिमाएं हमे याद दिलाती है कि पृथ्वी पर कोई भी परिपूर्ण नहीं है। प्रतिमा में उनके हाथ, पैर, पलके व कान नहीं है लेकिन कृश्ण हमेशा मुस्कुराते दिखाई देते हैं और गोलाकार आंखों से पूरी दुनियां को देखते रहते है।