भक्ति मार्ग - Dwarpal Sikar

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28 जून 2020

भक्ति मार्ग


!! जय श्री राधेकृष्ण !!



मन मे लौ, ठाकुर तेरी लगी


जीवन मे मनुष्य कभी इधर भागता है, कभी उधर। क्योंकि वह परेशानी के कारण तय नही कर पाता कि,उसकी मंजिल क्या है। जब तक हम अपना मार्ग और मंजिल नही चुनेंगे, तो हम कैसे आगे बढ़ेंगे। यही बात भक्ति मार्ग की भी है, जब तक भक्ति मार्ग पर चलने का संकल्प नही लेंगे,चल नही पाएंगे -


गोविन्द एक छोटी-सी दुकान से अपना घर-खर्च चलाता था। उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा। उसने सोचा, मैंने जीवन में आखिर पाया ही क्या है? मेरे देखते-ही-देखते कई लोग लखपती हो गये। कोई मशहूर कलाकार बन गया, कोई बड़ा व्यापारी, परंतु मैं बस, एक सामान्य आदमी बनकर रह गया हूँ। गोविन्द के मन में बेहद हताशा की भावना आ गयी। उसने अपने मन में कुछ संकल्प लिया और जंगल की तरफ चल दिया। वह चाहता था कि कोई जंगली जानवर उसे अपना शिकार बना ले, ताकि इस निरर्थक जिन्दगी से छुटकारा मिल जाय। मन-ही-मन कई प्रकार के बुरे ख्यालों में उलझा हुआ वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। ठण्ड बढ़ने लगी थी। जंगली जानवरों की भयंकर आवाजें आने लगी थीं। यद्यपि अभी तक कोई जानवर उसके नजदीक नहीं पहुँचा था। वह अपनी मृत्यु की तलाश में भटक रहा था।
गोविन्द ने देखा, उस बियाबान जंगल में एक घने बरगद के नीचे कोई बैठा है। उत्सुकतावश वह नजदीक गया। देखा, एक महात्माजी बैठे हैं। गोविन्द के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह महात्माजी के पास गया। उन्हें प्रणाम करते हुए उसने पूछा-' महाराज ! इस खतरनाक जंगल में आप क्या कर रहे हैं? जंगल के बाहर गाँव हैं, वहाँ क्यों नहीं भजन-पूजन करते ?' महात्माजी मुसकराकर बोले-'हम साधु तो एकान्त ही खोजते हैं। यह सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिये कि इस बियाबान जंगल में; जहाँ पग-पगपर मौत घूम रही है, वहाँ तुम क्या करने आये हो? तुम्हें कोई कष्ट है, तो मुझे बताओ।'




मानो गोविन्द की दुखती रग पर हाथ रख दिया गया हो। वह फफककर रो पड़ा। उसने रोते-रोते अपने मन का दर्द महात्माजी को बता दिया। महात्माजी ने उसकी पूरी बात ध्यानपूर्वक सुनी, फिर बोले- ' अच्छा, गोविन्द, तुम यह सोचकर दुखी हो कि जीवन में कुछ साध नहीं पाये ? सचमुच हर इंसान को ऐसा सोचना चाहिये। वह इंसान ही क्या जो जीवन में कोई उल्लेखनीय काम न कर पाये? परंतु मुझे यह तो बताओ कि तुमने क्या साधना चाहा या क्या प्राप्त करना चाहा ?' महात्माजी के इस प्रश्न पर गोविन्द बुरी तरह अचकचा गया। बोला-'जी, यह तो मैंने सोचा ही नहीं।' महात्माजी बोले - 'तुमने तीर का निशाना तो निर्धारित ही नहीं किया, फिर लक्ष्यवेध न कर पाने का दुःख कैसा ? जब तुमने अपना लक्ष्य ही निर्धारित नहीं किया तो प्राप्त क्या करना चाहते हो? जाओ, पहले अपना लक्ष्य सोचो, फिर उसे प्राप्त करने की बात सोचना।'
महात्माजी की बात सुनकर गोविन्द की ऑँखें खुल गयीं। उसने जीवन को त्यागने का निर्णय त्याग दिया। अब उसे जिन्दगी जीनी थी, वह भी एक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये।इसी प्रकार भक्त को भी भक्ति करने का लक्ष्य या संकल्प करना चाहिए।तभी वह श्री हरि की शरण की ओर बढ़ेगा।



जय श्री राधेकृष्ण